गुरुवार, 27 जून 2013

मां और चिड़िया - ध्रुव गुप्ता

मैंने सुना है
दुनिया की तमाम मांएं
मरकर चिड़िया हो जाती हैं
बनाती हैं घोंसले
अपने घर के पास किसी वृक्ष
या घर के रोशनदान में
सुबह-सुबह शोर मचाकर सदा की तरह
जगाती है अपनी संतानों को
भरी दोपहरी मुंडेर या छत पर बैठकर
देती हैं कुछ-कुछ हिदायतें
जिन्हें हमेशा की तरह
हम अनसुनी कर जाते हैं
दाना-पानी न डालो इन्हें
तो शिकायत नहीं करतीं

मेरी वाली एक नन्ही चिड़िया
हर रात मेरे कंधों पर बैठ जाती है
जब भी मैं होता हूं दर्द
या गहरे अवसाद में
दबी जुबान से कानो में कुछ कहती है
मैं उसकी भाषा नहीं पहचानता
पहचानता लेता हूं उसकी आंखें
और आंखों में झांकती चिंता

मैं आहिस्ता से उसके कानों में
फुसफुसाता हूं - मां
वह आहिस्ता से पंख फड़फड़ाती है
आहिस्ता से कहती है - चूं
और आहिस्ता से ही
मैं गहरी नींद में डूब जाता हूं !

विदा होते हुए - राकेश श्रीमाल


बुधवार, 26 जून 2013

मैं कस्बे का भोला पंछी - मुज़फ्फर हनफ़ी


अभी न परदा गिराओ ठहरो - गुलज़ार


माँ - शहंशाह आलम


विदा - बुद्धिलाल पाल


साथ - शंकरानन्द